बरसात के दिन हैं। बदली घिरी हुई है और झिर-झिर कर बूँदें सुबह से ही बरस रही हैं। भोजन के बाद इस मौसम का एक प्रसिद्ध फल खा रहा हूँ। कहते हैं, पेट के लिए यह फल बहुत ही लाभदायक है। छोटे-छोटे, मीठे परंतु कसैला भाव लिए इस फल को बचपन से ही जानता हूँ। यह है जामुन। जामुन का एक ठिगना भाई भी होता है - कठजामुन। याद आ रहा है कठजामुन के कई पेड़ हमारे विद्यालय के पिछवाडे खड़े थे। तेज बरसाती हवा चलती तो झब्बे-के-झब्बे कठजामुन जमीन पर बिछ जाते।
जामुन हमारे देश का सुपरिचित फल है। हो भी क्यों नहीं हमारे देश का प्राचीन नाम जंबूद्वीप (संस्कृत जंबू - जामुन) इसी फल के नाम पर पड़ा। हमारे साहित्य में भी इसके अनेक संदर्भ हैं। पंचतंत्र में इसे एक मधुर फल बताया गया है। इसके पेड़ की लकड़ी से उपस्कर आदि बनते हैं। इसकी डालें बहुत लचीली होती हैं, पत्तियाँ चिकनी। पर सावधान इसके मीठे फल का रस यदि आपके कपड़े में लग गया तो फिर क्या मजाल जो आप उससे छुटकारा पा जाएँ। इसके फलों का रंग कपड़े पर भक्ति के मजीठे रंग की तरह उतरता है अथवा प्रेमरोग की तरह लगता है। लग गया तो छूटेगा नहीं। समझ लीजिए।
वैष्णव परंपरा में जामुन के संदर्भ में एक रोचक कथा बहुत प्रचलित हुई है। उस कथा का स्मरण सहसा हो आया। एक पंडित जी शालिग्राम भगवान के बड़े पुजारी थे। उनके दरवाजे पर जामुन का पेड़ था। जामुन के मौसम में उनका एक नटखट नाती उनके घर आया था। नाती को न जाने क्या सूझा उसने पंडित जी के भगवान शालिग्राम को पत्थर समझ कर पके रसदार जामुनों को निशाना बनाया। शालिग्राम के पत्थर की चोट से पके जामुनों का एक गुच्छा तो गिरा पर शालिग्राम के पत्थर का कोई पता नहीं चला। मारे डर के बच्चे ने एक बड़ा-सा पका जामुन शालिग्राम भगवान के सिंहासन पर रख दिया। शाम हुई। पंडित जी आसन पर बैठे। स्नान कराने के लिए उन्होंने ज्यों ही शालिग्राम को हाथ लगाया पका जामुन उनके हाथ में आया। पंडित जी हैरान रह गए। आसन से उठकर उन्होंने घर में इसके बारे में सबसे पूछा। नटखट बच्चे ने जवाब दिया - नाना जी आप बार-बार चंदन-पानी से शालिग्राम भगवान का अभिषेक करते रहते हैं इसी से तो शालिग्राम भगवान पिचक गए हैं।
जामुन खाते-खाते अनायास याद आ गया बड़का जामुन। पकड़ी नरोत्तम में हमारे घर के सामने पर्वताकार खड़ा बड़का जामुन। आस-पड़ोस के गाँवों में अपना पता-ठिकाना यदि किसी को बताना हो तो बस इतना ही कहना हमारे लिए काफी था - बड़का जामुन के पास घर है। हमारे बड़का जामुन को कौन नहीं जानता था। बहुतों के लिए उसकी उत्तुंग काया उसके परिचय का कारण थी तो बहुत उसकी सघन छाया से ही परितृप्त थे और ऐसे लोगों की भी बहुत बड़ी संख्या थी जिनकी जीभ पर बड़का जामुन का मधुरस अमिट भाव से रच-बस गया था।
बड़का जामुन सिर्फ आकार में ही बड़ा नहीं था, उसका फल भी बड़ा होता था, काफी बड़ा। वह - बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर - का जोरदार जवाब था। बड़ा भी वह, उपयोगी भी वह। बड़का जामुन का बड़प्पन वर्ष भर सघन छाया के रूप में छितराया रहता तथा बरसात आते ही घनीभूत होकर पके फल के रूप में टपक पड़ता। बड़का जामुन हमारे घर के सामने था। बचपन में यह हमारे लिए गौरव की बात थी। हम इसकी छाँह में मवेशियों को पगुराते हुए देखते, राहियों-बटोहियों को घुल-मिलकर बतियाते हुए निरखते और साथियों के साथ उछल-कूद मचाते। जामुन का यह विशाल अवतार हमारे लिए गोवर्धन पर्वत था - अपने ही तने पर खड़ा सबको आश्रय देता हुआ। किसी से कुछ लेना नहीं बस देना ही देना।
बड़का जामुन के साथ जुड़ी यादें और घटनाएँ स्मृति के वातायन से रह-रह कर झाँक रहीं हैं। याद आते हैं माघ-पूस के दिन। बड़का जामुन के तले बना है हमारा खलिहान। घान की भरपूर फसल अब काट ली गई है और उनके बोझे बँधकर खलिहान में जमा हो गए हैं। कुछ दिन सूखने के बाद इनके पिटाई की जाएगी और उससे निकला धान बोरियों में बाँध कर रखा जाएगा। धान ही तो धन है हमारा। मकर संक्रांति के पूर्व धान खलिहानों से घर में आ जाय तो अच्छा। भाइयों में सबसे बड़ा होने के नाते खलिहान में पड़े धान के बोझों की रखवाली की स्वभाविक जिम्मेदारी मेरी ही होती थी। गोहिया (धान के बोझों से घिरा तथा पुवाल से छाया हुआ कमरेनुमा कामचलाऊ आश्रय) में सोने के लिए छोटे भाई काफी मचलते। पर उन्हें अनुमति नहीं मिलती और इठलाता हुआ मैं चला जाता।
आधी रात के बाद बड़का जामुन की पत्तों पर ठहरी ओस की बूँदें फिसल कर जब नीचे पड़े सूखे पत्तों पर गिरतीं तो टप-टप की मुखर आवाज होती और मैं जाग जाता। मुझे लगता जैसे धान के बोझे चुराने आए किसी चोर की पदचाप है यह। फिर साँसे रोक कर थाह लेता। शीघ्र ही समझ में आ जाता कि नहीं ओस की बूँदें पत्तों पर टपक रहीं हैं। यह उसी की आवाज है। फिर निडर भाव से मैं पुवाल के बिछवन पर पुवाल का ही तकिया लगाकर सो जाता। सुबह होती और उसी बड़का जामुन के तले धान की पिटनी शुरू होती। धान पिटवाते और उसे तौल कर बोरियों में भरवाते दिन कब निकल जाता पता ही नहीं चलता।
गोधूलि के समय दिन भर में पीटे गए धान को तौला जाता। पहले पीट कर निकाले गए धान को एकत्र किया जाता तथा उसकी ढेरी लगाई जाती। ढेरी के ऊपर ठीक बीच में गोबर का एक पिंड-सा बना कर रख दिया जाता। हमारे परिवार के पुराने विश्वस्त भोला सिंह न जाने कहाँ से हथेली पर खैनी मलते हुए हाजिर हो जाते। पिता जी की सख्त हिदायत थी - धान भोला सिंह ही तौलेंगें। बाँस के बने तराजू के पलड़े, गोबर से लिपे हुए। दाहिने हाथ में तराजू की डोर मजबूती से पकडकर भोला सिह कहते - रामेराम रामे, हे रामेराम रामे, रामेराम रामे, हे रामेराम रामे। इस प्रकार एक पलड़ा धान तुल जाता। पलड़े पर धान फिर रखा जाता और भोला सिंह के मुख से बोल फूटते दुइए राम दुईए, हे दुइये राम दुईए, दुइये राम दुईए, हे दुइये राम दुईए। पहले पलड़े की तौल को एक कहना भोला सिह अपशकुन मानते। राम का नाम सबसे बड़ा शुभंकर है सबसे पहले मैंने यह तभी जाना था।
बड़का जामुन इलाके के प्रसिद्ध साप्ताहिक बाजार से होकर आनेवाली तथा निकटतम स्टेशन को जाने वाली कच्ची सड़क के किनारे खड़ा था। जाड़े के दिनों में जब चीनी मिलों में गन्ने की पेराई चल रही होती तो गन्ना लदी बैल गाड़ियों इसी रास्ते से होकर मिल को जातीं। ये बैल गाड़ियाँ अल सुबह ही निकल पड़तीं ताकि मिल के गन्ना-संग्रह केंद्रों पर जल्दी पहुँच सकें। कुछ गाड़ियों बड़का जामुन के तले ठहरतीं। यहाँ अलाव के व्यवस्था रहा करती। कहते हैं अमृतं शिशिरे वह्नि - जाड़े में आग का सेवन अमृतोपम होता है। शिशिर ऋतु में ठंड से ठिठुरते गाड़ीवान बड़का जामुन के तले जल रही अलाव पर अपने हाथ पाँव सेंककर आगे बढ़ते।
पुराने तथा जीर्ण पेड़ों की डालियाँ रात के समय कभी-कभी हवा के झोंके अथवा बंदर के कूद-फाँद से टूट जाती हैं। बच्चे ऐसी घटनाओं के पीछे अलौकिक शक्तियों का हाथ देखते थे। समझा जाता था कि ऐसे पेड़ों पर भूत का वास है और गुस्से में आकर वही डालियाँ तोड़ता है। बड़का जामुन की डालों को अनायास ही टूटकर गिरते कभी देखा नहीं गया। इससे हम अनुमान लगाते कि बड़का जामुन भुतहा नहीं था। वैसे, इलाके के प्रायः सभी पुराने पेड़ भूतहा घोषित हो चुके थे। गोधूलि के बाद कोई बच्चा भूतहा पेड़ों की ओर नहीं जाता। कभी किसी कारण से कोई उधर से गुजरता तो हनुमान चालीसा पढ़ते हुए ही। भुतहा पेड़ शिशुओं तथा किशोरों की कल्पनाओं को कई नए आयाम देता और कई कपोल कल्पनाएँ किंवदंतियों का रूप धर लेतीं।
शुक्र है बड़का जामुन पर भूत नहीं थे। अतः बच्चे उसके तले निःशंक जुटते थे। वह पेड़ एक वृद्ध पितामह की तरह था - नामवर, छायादार तथा फलद। किशोरों का झुंड उसकी छाया में जुटता और पक्षियों का समूह उसपर कलरव करता। उसकी ऊँची से ऊँची डाली पर भी घोंसले बने थे। ऊँचाई अथवा उदारता में बड़का जामुन की समता करने वाला कोई पेड़ आसपास में था मुझे ऐसा याद नहीं। इस दशा में बड़का जामुन का दायित्व और बढ़ गया था। जिसका उसे एहसास भी था। वह छाया, फल तथा आश्रय सबका अक्षय कोष खुल कर लुटाता।
बड़का जामुन कम स्वभिमानी नहीं था। हमारे विद्यालय के पिछवाड़े खड़े कठजामुन के पेड़ उतने स्वाभिमानी नहीं थे। भीषण से भीषण आँधियाँ आईं पर हमारा बड़का जामुन उसके समक्ष कभी झुका हो हमने तो नही देखा। वह न तो झुका और न ही टूटा। बड़का जामुन दुर्लंघ्य भी था। अपने ऊपर वह किसी को चढ़ने की अनुमति नहीं देता। पेड़ पर चढ़ने वाले बड़े-बड़े महारथी थे हमारे गाँव में। पर किसी की हिम्मत कभी हुई हो बड़का जामुन पर चढ़ने की, मुझे याद नहीं। अपनी डालियों को भूमि से कम-से-कम बीस फीट ऊपर रखे हुए बड़का जामुन मानों सबको चुनौती देता रहा - आओ, चढ़ सको तो चढ़ो मुझ पर। पर चुनौती शायद ही कभी किसी ने स्वीकार की हो।
छोटा भाई पिछले सप्ताह गाँव से यहाँ सपरिवार आया था। एक रात, खाना खाने के बाद हम काफी का आनंद ले रहे थे। गाँव-घर की चर्चा चल पड़ी। किसी प्रसंग में उसने कहा - बड़का जामुन गिर गया। कैसे? मैंने पूछा। 'इस बार बहुत तेज आँधी आई उसी मैं गिर पड़ा,' भाई ने बताया। समाचार अप्रत्याशित था। मेरी स्मृति में बड़का जामुन की विशाल काया जाग उठी थी। कल्पना की आँखों से मैं समूल उखड़ कर गिरे बड़का जामुन को देखा रहा था। मन मानने को तैयार नहीं था कि बड़का जामुन अब नहीं रहा। पर यथार्थ को झुठलाया कैसे जा सकता था। सचाई से आँखें कैसे चुराई जा सकतीं थी? बहुत देर तक हम बड़का जामुन के तले बिताए दिनों को याद करते रहे। सुबह जल्दी जगना था सो हम सोने चले गए।
बिस्तर पर भी बड़का जामुन याद आता रहा। बड़का जामुन के बिना परिदृश्य कैसा लग रहा होगा मैं इसकी कल्पना करने लगता हूँ। पूर्व दिशा की ओर है चौमुहानी जहाँ हम बस से उतरते थे। घर की ओर बढ़ते समय आँखें सबसे पहले बड़का जामुन पर ही टिकतीं थीं। अब आँखों को वह विश्राम दूर क्षितिज में कहाँ मिल पाएगा? पक्षी कहाँ विश्राम करेंगें? मेरे सामने दूसरा प्रश्न था। पक्षियों का क्या? वे कौन से बावरे हैं हमारी तरह? वे दूसरा बसेरा खोज लेंगें। चलो ठीक है, पर अब जाड़े की सुबह अलाव कहाँ जलेगी? गन्ने लाद कर जाने वाले गाड़ीवान अपने हाथ कहाँ सेंकेंगे? गर्मियों की दोपहरी में राही-बटोही कहाँ सुस्ताएँगे? अनेक निरीह प्रश्न मेरे सामने आकर खड़े हो गए उत्तर माँगने के लिए। उत्तर तो मैं भी खोज रहा था। पर उत्तर था कहाँ?
बड़का जामुन के धराशायी हुए कई वर्ष बीत गए हैं व्योमरेखा पर उसका नामों-निशान पहले ही मिट चुका था लोगों की यादों में भी बड़का जामुन का चित्र अब धुँधला हो चुका होगा ऐसा समझता हूँ। मैं नहीं जानता पक्षी अब अपना बसेरा कहाँ डाल रहे हैं तथा अलाव अब कहाँ जल रही है क्योंकि सतजोड़ा पकड़ी गए मुझे भी 10 वर्ष से ज्यादा हो गए। पर जामुन खाते-खाते आज बड़का जामुन की जो स्मृति सजीव हो आई है उस पर यदि विचार करूँ तो लगता है बड़का जामुन आज भी जिंदा है अपने समस्त वैभव के साथ, अपने समस्त पौरुष के साथ। कभी वह एक पेड़ था अब मेरी स्मृति में बस गया है। मेरी यादों में समा गया है। ठीक वैसे ही जैसे मुझमें मेरे परिवेश का, मेरे परिवार का अवदान है मै समझता हूँ आज मैं जो कुछ हूँ उसमें बड़का जामुन का भी बड़ा अवदान है।
आज बड़का जामुन नहीं है। पर उसकी काया मेरे मन में विराट के स्वरूप की अवधारणा रच रही है। बड़का जामुन की आश्वस्तिकरी स्निग्ध छाया मुझसे कह रही है कि मुझे अपने परिवेश को यथासंभव स्निग्धता प्रदान करनी चाहिए। उसके फलों का माधुर्य मेरी जिह्वा का स्थायी भाव बन कर विराज रहा है। माधुर्य तथा काषाय का गुणकारी संयोग उस वृक्ष-पुरुष के तले जो संहति जमा होती थी उसमें मैं औपनिषदिक महत् की छाया में प्रतिबिंबित जीव का आरोप कर रहा हूँ। मैं भावुक हो रहा हूँ अतः आज कहने को मेरे पास बहुत कुछ है। पर नहीं कहूँगा क्योंकि सबसे बड़ी बात तो मैं कह ही चुका - बड़का जामुन अब नहीं रहा।